और माँ खो गई ! ----डॉ. विनोद बब्बर
आज मेरी माँ का जन्म दिवस है। वैसे सच तो यह है कि माँ को तो याद ही नहीं कि वह किस दिन इस संसार में आई थी। नानी भी इस मामले में कुछ न कर सकी क्योंकि वह दौर ही अलग था। वैसे ऐसे आज भी अनेक लोग हैं जो अपने जन्म की सही तारीख नहीं जानते, वे लोग स्कूल सर्टिफिकेट पर लिखी जन्म तिथि को जन्म दिवस मनाने की औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। पर मेरी माँ के मामले में ऐसा नहीं है एक दिन मैंने माँ से पूछा, ‘माँ सबके जन्म दिन पर हमें मिठाई मिलती है। आप अपना जन्मदिन क्यों नहीं मनाती? कोई एक दिन तय कर लो ताकि हमें मिठाई मिले।’
माँ कुछ क्षण खामोश रहकर बोली, ‘तुम माँ का जन्मदिन मनाना चाहते हो या मेरा?’ मैं उनका आशय तो समझ न सका, लेकिन बोलने में सबसे आगे रहना चाहता, इसलिए बोला, ‘हमें तो माँ के जन्मदिन की मिठाई चाहिए।’
माँ ने मेरी बड़ी बहन के जन्मदिवस को अपना जन्मदिवस घोषित करते हुए कहा, ‘आज ही के दिन मैं माँ बनी थी, इसलिए अब से तुम्हारी माँ यानी मेरा जन्म दिन यही दिन होगा।’
आज सुबह से बार-बार मेरा ध्यान उस ओर जाता है जहाँ माँ का पलंग है। पलंग खाली है। माँ की तलाश करता हूँ लेकिन हर बार असफलता हाथ लगती है। याद आता है नानी बताया करती थी कि बचपन में एक बार एक ज्योतिषी ने माँ का हाथ देखकर भविष्यवाणी की थी कि इसका ध्यान रखना, यह खो सकती है। बहुत संभव है कहीं भीड़ में। नानी के अनुसार, ‘उनके कुछ बच्चे पहले ही भगवान को प्यारे हो चुके थे इसलिए वह अपनी लाड़ली बेटी को सदा अपने साथ रखती। भीड़ और मेले से दूर रखती। यहाँ तक कि शादी के बाद भी जब-जब माँ मायके जाती, नानी उसे अपने साथ ही सुलाया करती।’
समय बदला। इतिहास बदल गया। देश का विभाजन हुआ। बहुत कुछ पीछे छूट गया लेकिन बहुत कुछ खो कर भी खो जाने का डर बरकरार रहा। हम अनेक भाई बहन थे। ऐसा कहना तो स्वयं को धोखा देना होगा कि हम अपनी माँ का बहुत ध्यान रखते थे। पर हाँ, ऐसा कहते हुए हमें जरा भी संकोच नही कि माँ हम सबका बहुत ध्यान रखती थी।
नाना अपने समय के बहुत बड़े जमींदार थे। कहा जाता है, उस जमाने में उन्होंने अपनी बेटी की शादी इतनी धूमधाम से की कि लोग उनका उदाहरण देते। माँ को किलो के हिसाब से सोने के जेवर, सारे परिवार को कीमती उपहार। आज बेशक कार घर-घर पहुंच चुकी है। पर उस समय अपनी बेटी को कार वाले घर में भेजना खाला जी का घर न था। विभाजन ने एक देश को ही लकीरो से नहीे बांटा, लाखों विस्थापितों के भाग्य पर गहरी लकीरे खींच दी। माँ का मायका-ससुराल सब पीछे छूट गया। समय ने उसेेे राजकुमारी से एक मध्यमवर्गीय परिवार की बहू बना दिया। लेकिन भौतिक अभाव उसे विचलित न कर सके। उसने समय से समझौता कर लिया। बचपन से नौकर चाकरों के हाथो में पली माँ को अब दिन भर मेहनत करनी पड़ती। बड़े परिवार को संभालना, बच्चों की जरूरते पूरी करना आसान न था। बिना स्कूल गए माँ एक से अधिक भाषाएं जानती थी। समय ने उसे और भी बहुत कुछ सिखाया था। वह जमाना आज सरीखा न था कि बटन दबाते ही जल देवता प्रकट हो जाए। बेशक आज अग्नि देवता चुटकियों में हाजिर हो जाते हैं लेकिन तब, तब तो चूल्हा फूंकना या अंगीठी जलाना आसान न था। आज एसी. कूलर, पंखे हैं पर तब जेठ की दोपहरी में पेड़ की छाँव ही एकमात्र आश्रय होता था। परिवार भर के कपड़े धोने को मशाीन नहीं, खुद ही मशीन बनना पड़ता था। हम बारी-बारी से हैंड पम्प से पानी खींचकर माँ की मदद करते तो फुर्सत में माँ हमारे कपड़े भी स्वयं ही सिला करती थी। बरामदे में हाथ की सिलाई मशीन चलाती माँ और उसे चारो तरफ से घेरे हम सब भाई-बहन, ‘पहले मेरा कालर वाला कुर्ता!’, ‘नहीं, नहीं!! माँ, पहले मेरा झालर वाला फ्राक!’
गर्मी में पसीने से भीगते हुए माँ मुस्कुरा कर सभी को भरोसा दिलाती, ‘हाँ, हाँ, पहले तेरा ही सिलूंगी।’ तब जब माँ मेरा कुर्ता सिल रही होती तो मैं हाथ पंखे से गर्मी से लड़ने की कोशिश करता लेकिन ज्यों ही माँ बहन की फ्रांक को छूती, मैं पंखा बहन को सौंप देता, ‘अब तेरी बारी है। देखती नहीं, तेरी फ्रांक सिली जा रही है।’
क्या समय था। अभावों में भी भाव था। दिन भर की व्यस्तता के बावजूद कहानी सुनाना भी जैसे जरूरी कर्मकांड था। कहानी का अर्थ भी कहाँ जानते थे हम? अनेक बार कहानी सुनाते-सुनाते माँ की आंखें भीग जाती तो हम भी भावुक हो जाते। लगता जैसे कहानी नहीं, वह अपने युग का सत्य बखान कर रही हैं। नानी की कहानी, दादा -दादी की कहानी, राजा-रानी की कहानी। हर कहानी में कुछ ऐसा अवश्य होता जो कहा नहीं जाता था, लेकिन उस कहानी का महत्वपूर्ण अंश होता था। आज भी कहानी की परिभाषा मेरे लिए नहीं बदली है।
हर छोटी - बड़ी कहानी के पात्रों की तरह हमारे जीवन में भी नए-नए पात्र आते गए तो माँ मुख्य कलाकार से अतिथि कलाकार की भूमिका में आ गई। हम चाहकर भी उसके लिए कुछ न कर सके लेकिन वह हर सुबह हम सबकी खुशियों के लिए भगवान के सामने झोली फैलाती। उसकी प्रार्थनाएं भगवान के दरबार में मंजूर होती लेकिन हर सफलता हम माँ से और ज्यादा दूर करने लगी। इस कठोर सत्य से किसे इंकार होगा, जब बेटे ही अपनी माँ की परवाह नहीं करेंगे तो बहुओं से ज्यादा उम्मीद लगाना व्यर्थ है। आखिर , वे ठहरी पराये घर की बेटिया। फिर संघर्ष के उस दौर को उन्होंने देखा ही कहाँ जब माँ ........!
समय हर समस्या का समाधान है लेकिन बढ़ती आयु अनेक समस्याएं लेकर आती है। वहाँ समय भी बेबस नजर आता है क्योंकि हर समय का अपना समय है, कभी चहचहाहट तो कभी सुगबुगाहट। कभी खिलखिलाहट तो कभी सिसकियांँ। माँ के जोड़ों में दर्द रहने लगा तो मंदिर, सत्संग में जाना कम हो गया। अब दिन भर करे भी तो क्या? बच्चांे पोतांे के पास समय नहीं और यहाँ समय काटे नहीं कटता। यह संयोग ही था कि जब अचानक एक दिन उसके सीने में तेज दर्द उठा, तो मैं पास ही था। माँ को तत्काल एक नर्सिंग होम ले गए। बेशक हजारों लगे लेकिन माँ की जान बच गई।
माँ एक सप्ताह बाद घर लौट आई लेकिन सब कुछ बदला-बदला था। इतिहास भूगोल की बारीक जानकारी रखने वाली माँ अब छोटी-छोटी बातें भी भूलने लगी। डाक्टर से चर्चा की तो उसका कहना था, ‘हृदय आघात के बाद रक्त संचार प्रभावित हुआ है। मस्तिष्क तक रक्त कम पहुंच पाता है। यदि कहे तो दवा दे सकता हूँ लेकिन उसके भी खतरे हैं। मेरा सुझाव है, आप लोग सेवा रखों।’
अब तो हमारी चिंता बढ़ गई। सबका ध्यान रखने वाली माँ अब अपनी दवा तक का ध्यान नहीं रख पाती थी। अब अकेले बाहर नहीं जाने दिया जाता। मन में डर रहता, कहीं ज्योतिषी वाली बात सत्य न हो जाए। ईश्वर न करें, यदि ऐसा हुआ तो...... हम मातृछाया से तो वंचित होंगे ही, जमाने भर में सिर उठाने के काबिल न रहेगे। दुनिया हम पर थू थू करेगी कि एक माँ का भी ध्यान न रख सके।
हमारी सजगता ने माँ को एक तरह से जकड़ लिया। वह चाहकर भी अकेले मंदिर तक न जा सकती। पड़ोस तक भी अकेले जाना मना था। बेशक सजगता बहुत से संकटो से बचाती है लेकिन कोई सजग से सजग व्यक्ति भी किसी को काल के क्रूर पंजे से नहीं बचा सकता। कई दिनों के अमृतसर प्रवास से देर रात लौटा ही था तो अगली सुबह माँ से मिलने पहुंचा। माँ की आंखें बंद थी लेकिन होंठ चल रहे थे। प्रभु सिमरन की धुन लगी थी। मैंने आवाज दी, ‘माँ’ तो कुछ हलचल हुई। बिना आंखे खोले हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया। मेरे हाथ का स्पर्श पाते ही बोली, ‘पप्पू,! कहाँ घूमता रहता है। मैं तेरी इंतजार कर रही थी।’ ....और मेरा हाथ छोड़ फिर वहीं राम-धुन। मुझे लगा, माँ के जाने का समय आ गया है। सभी भाई-बहन आ गए। सभी माँ से खूब मिले, हंसंे- खेले, मिलकर भोजन किया। लगा जैसे मेरी आशंका गलत है। इसी बीच मुझे किसी जरूरी काम से जाना था। जल्द लौटने की बात कह मैं घर से निकला ही था कि भतीजी का फोन, ‘चाचाजी, जल्दी आओं, देखो दादी को क्या हो गया है!’
उल्टे पांव लौटा तो देखा बड़े बेटे की गोद में सिर रखे माँ.जमीन पर लेटी है। मैंने माँ के मुंह में गंगाजल, पंचगव्य डालें। बेटिया, बहुएं हरिनाम स्मरण कराने लगी। अचानक हम सब बहन-भाईयों, पोते-पोतियों की उपस्थिति के बावजूद माँ अनुपस्थित हो गई। आज हमारे पास सब न सही, बहुत कुछ जरूर है लेकिन लेकिन माँ, माँ थी। हर संकट में हमें धैर्य की सीख देती। बड़े भाई से विवाद होता तो हर बार यह कह तनाव दूर करती, ‘बेटा अच्छे के साथ तो सभी निभा लेते हैं, अच्छा वह होता है जो सबसे निभायें। बेटा तू अच्छा बन।’ माँ ने जन्म दिया, संस्कार दिए, हर उतार-चढ़ाव में धैर्य रखना सिखाया। लेकिन आज जब माँ का जन्म दिन है, मेरा धैर्य जवाब दे रहा है। मन-मस्तिष्क सवाल कर रहे हैं, ‘आखिर क्यों चेतावनी के बावजूद माँ भीड़ में खो गई और हम टुकर-टुकर देखते रहे।’
आखिर यह हमारी असफलता है या विधि का विधान।
और माँ खो गई ! ----डॉ. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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