आखिर हमारी कृतघनता ने ही बसाएं हैं वृद्धाश्रम - डा. विनोद बब्बर
मदर्स डे-- मई का द्वितीय रविवार

माँ से बढ़कर कुछ नहीं, क्या पैसा क्या नाम।
चरण दुए तो हो गए, तीर्थ चारो धाम।।
वास्तव में माँ जो गर्भ की अबोली नाजुक आहट से मासूम किलकारियों तक, रात-रात भर बच्चे के लिए जागने से खुद गीले में रहकर बच्चे को सूखे में रखने तक, डुमक-छुमक आंगन में लड़खडाते पग से स्कूल से लौटने पर प्यार से चुमने तक, खुद भूखे रहकर भी बच्चे का पेट भरने वाली। स्तनपान कराने से अपनी हर संास संग अपने बच्चे के सुखद भविष्य की कामना करती मातृत्व की एकरूपता समस्त संसार में देखी जा सकती है। स्नेह, त्याग, उदारता, सहनशीलता की प्रतिमूर्ति के लिए ऋण, आभार, कृतज्ञता जैसे शब्द बहुत छोटे है। पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित स्कूल ने ‘मदर्स डे’ के आयोजन पर वक्ता के रूप में आमंत्रित किया। सभागार के द्वार पर लगे बैनर पर लिखा था- Mother is Next to God मैंने अपने बैग से मार्कर निकाला और उस बैनर के दो शब्दों का क्रम बदल कर उसे God is Next to Mother कर दिया। मेरा मत है कि यदि माँ ही नहीं होती तो भगवान को मैं कैसे जानता। यह अकारण नहीं कहा किसी ने, ‘उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी जरूरत क्या होगी! ऐ माँ...ऐ माँ! तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी!!’
हमारे वेद, पुराण, उपनिषद सहित तमाम शास्त्र ‘माँ’ की महिमा के साक्षी हैं। भारत भूमि सदा से ही ऐसे असंख्य तपस्वियों, विद्वानों, से समृद्ध रही है जिन्होंने जननी (माँ) को ईश से भी बढ़कर घोषित किया है। इसमें कुछ असामान्य भी नहीं है क्योंकि कबीर कहते हैं- ‘बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियों मिलाय’ तो सवाल उत्पन्न होता है कि माँ से पहले कौन गुरु? माँ से बढ़कर कौन गुरु? शास्त्रों ने भी इस मान्यता पर अपनी मोहर लगाते हुए सर्वप्रथम माँ का वंदन करने की बात की है- मातृ देवो भव! (तैतरीय उपनिषद)
हम सब जिस ‘मनुर्भव’ का उद्घोष करते हैं, मानव जीवन के लिए एक प्रकार से आचार संहिता बनाने वाले महर्षि मनु कहते हैं, ‘दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण ‘माँ’ होती है।’ ऋग्वेद में ‘माँ’ के लिए कहा गया है- ‘हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ ! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम-परायण बनाओं। हमें यश और अद्धत ऐश्वर्य प्रदान करो।’
सामवेद अपने प्रेरक मंत्र में कहता है- ‘हे जिज्ञासु पुत्र! तू माता की आज्ञा का पालन कर, अपने दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख, मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर।’
महात्मा चाणक्य के बिना भारतीय संस्कृति में नीति का ज्ञान अधूरा है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है ‘माता के समान कोई देवता नहीं है। ‘माँ’ परम देवी होती है।’
मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस देश के हर मन में, हर घर, हर घट में बसते हैं। उनसे बढ़कर किसकी मान्यता है भारत भूमि में। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’ अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है, जैसा शाश्वत संदेश देने वाले श्रीराम को कोटिशः नमन!
हमारी संस्कृति में वसुंधरा को माता कहा गया है। वसुधा जो निरंतर देने और सिर्फ देने में विश्वास रखती है। लेती वही है जो अनुपयोगी है, व्यर्थ है। और देती है, जो उपयोगी है, कल्याणकारी है, जीवनदायी है। महाभारत का यक्ष-युधिष्ठर संवाद इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है तो जीवन दर्शन का महान अध्याय। इस संवाद में यक्ष ने युधिष्ठिर से 128 प्रश्न पूछे जिनमें एक था, ‘पृथ्वी से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर का उत्तर था, ‘माता गुरूतरा भूमेः’ अर्थात, माता पृथ्वी से कहीं अधिक भारी होती हैं।
महाभारत के महानतम नायक पितामह भीष्म अनुशासन पर्व मे अकारण नहीं कह सकते, ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरू नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।’ इसी प्रकार श्रीमद्भागवत ‘माँ’ को बच्चे का प्रथम गुरू घोषित करती है।
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानंद कहते हैं-‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।’ अर्थात् जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा।यह भी कहा गया है, ‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।’ यानी धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।
माँ तेरे हजार नाम- माता, मात, मातृ’, ‘अम्मा, अम्मी, जननी, जन्मदात्री, जीवनदायिनी, ‘जनयत्री’, ‘धात्री’, ‘प्रसू’ ‘अंबा’, ‘अम्बिका’, ‘दुर्गा’, ‘देवी’, ‘सरस्वती’, ‘शक्ति’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’ और जाने क्या-क्या। माँ (हिंदी), मातु (संस्कृत), मदर (अंग्रेजी) मादर (फारसी), माकून (चीनी), अम्मी (उर्दू), माई (भोजपुरी), चाई, बेबे (पंजाबी), हो या आज के मम्मा, मम्मी, मॉम, कोई भी भाषा-बोली, ‘माँ’ माँ है, ‘ममत्व’ और ‘वात्सल्य’ की इस देवी के प्रति अटूट, अगाध, अपार सम्मान देखने को मिलेगा। बेशक यूरोप में मई के दूसरे रविवार को,, इंडोनेशिया में 22 दिसम्बर को ‘चीन में दार्शनिक मेंग जाई की माँ के जन्मदिन को तो हमारे पड़ोसी देश नेपाल में वैशाख कृष्ण पक्ष में ‘माता तीर्थ उत्सव’ मनाने की परम्परा है लेकिन सही मायने में तो हर दिन ही मातृ दिवस है। आखिर वह हमारी माँ ही तो है जिसके कारण से हम हैं। दुनिया के तमाम धर्म, सम्प्रदाय माँ के त्याग के प्रति नतमस्तक हैं। बेशक इस्लाम में खुदा के अलावा किसी के सामने सजदे की मनाही है लेकिन वहाँ भी कहा गया है,‘माँ के पांव तले जन्नत है’
विश्व की महान विभूतियों ने भी एक स्वर में ‘माँ’ की सर्वोच्चता को माना है। एक बार
स्वामी विवेकानंद जी से किसी ने प्रश्न किया कि माँ की इतनी महिमा क्यों? स्वामीजी ने उस व्यक्ति से पांच सेर वजन का एक पत्थर मंगवाकर उसके पेट पर बाँधा और उससे चौबीस घंटे बाद आने को कहा। वह व्यक्ति पत्थर बंधे हुए हर छण परेशानी और थकान महसूस करता रहा। कुछ ही घंटों में जब यह असह्य हो गया तो उसने स्वामी जी से कहा, ‘इस पत्थर को अब और बांधे रखना संभव नहीं। एक प्रश्न का उत्तर पाने क लिए मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता।’ इसपर
स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठा सके लेकिन हर माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोते हुए दिन भर गृहस्थी की सभी जिम्मेवारियां भी निभाती है। क्या अब भी तुम्हें माँ की महानता का कोई प्रमाण चाहिए?’
गांधी जी अपनी माता के प्रति सर्वाधिक श्रद्धा रखते थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने अनेक प्रसंगों में माँ की चर्चा की है। छत्रपति शिवाजी तो अपनी समस्त क्षमताओं, सफलताओं का श्रेय अपनी माता जीजाबाई को देते थे। उनके महान चरित्र का राज यह था कि हर नारी में शिवा अपनी माँ की छवि देखते थे। एच.डब्लू बीचर के अनुसार, ‘जननी का हृदय शिशु की पाठशाला है।’ कालरिज का मानना है, ‘जननी जननी है, जीवित वस्तुओं में वह सबसे अधिक पवित्र है।’ नेपोलियन बोनापार्ट का मत है, ‘शिशु का भाग्य सदैव उसकी जननी द्वारा निर्मित होता है।’ जॉर्ज वॉशिंग्टन कहते हैं, ‘मेरी माँ दुनिया की सबसे सुंदर महिला थी. मुझे लगता है मैं जो कुछ हूँ वह मेरी माँ को देने हैं। माँ से प्राप्त, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक शिक्षा ही मेरी हर सफलता के श्रेय की हकदार है। स्टीव वंडर के अनुसार, ‘मेरी माँ करुणा, प्रेम और निर्भयता की शिक्षक थी। प्यार एक फूल के रूप में मीठा है, तो मेरी मां प्यार की मिठाई फूल थी।
जाने-माने शायर जनाब मुन्नवर राणा ने तो माँ की शान में बहुत कुछ कहा है। उनका हर शेर लाजवाब है-
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है।
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है।
ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया।
मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ।
मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
जन्नत की तलाश से थक जाओ तब
कुछ देर मां के आंचल में सुस्ता लेना।
महाभारत के रचियता वेदव्यास की लेखनी को प्रणाम करे जो उद्घोष करती है-
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।’
अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।
और अंत में एक सवाल आप सभी से, ‘आखिर हम इतने अहसान फरामोश क्यों हो जाते हैं कि हमारे पास अपनी बूढ़ी माँ के लिए समय नहीं होता। क्या यह सत्य नहीं कि हमारी कृतघनता ने ही बनाए है वृद्धााश्रम, जहाँ ममता की मूर्त आंसू बहाते हुए भी अपने बच्चों की खुशहाली की दुआ करती है। यदि आप अपने बच्चों से सच्चा प्रेम करते हो तो पहले अपनी माँ का सम्मान करना सीखो वरना आज ही खोज लो वह अंधेरा कोना जहाँ अकेले बैठकर आंसू बहाने हैं एक दिन! Vinod BabbarContact 09868211911
आखिर हमारी कृतघनता ने ही बसाएं हैं वृद्धाश्रम - डा. विनोद बब्बर
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