धर्मनिरपेक्षता का कवच कुंडल और वोटों की राजनीति

लोकसभा चुनाव अपने अंतिम चरण में हैं। चुनाव, चुनाव न होकर जंग बन चुके हैं। पहली बार सोशल मीडिया सहित, हाईटेक साधनों का प्रयोग हो रहा है तो जाति, धर्म, धन, बल, अनर्गल प्रलाप, विवादित और भड़काऊ लफ्फाजी जैसे परम्रागत हथियार पूरी शक्ति से चलाये जा रहे है। ज्यों-ज्यों क्लाइमैक्स नजदीक आ रहा है, बहस से अधिक बकवास, तर्क से अधिक ताकत का प्रदर्शन हो रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता आजम साहब सेना को धर्म के आधार पर बांट रहे हैं तो स्वच्छ राजनीति के नारा पर जन्मी ‘आम आदमी पार्टी’ की नेता शाजिया इल्मी मुसलमानों को साम्प्रदायिक बनने की सलाह दे रही है। मुलायम सिंह धार्मिक आधार पर आरक्षण का सगुफा छोड़ रहे हैं तो भाजपा नेता गिरिराज विरोधियों के देश निकाले की बातकर रहे हैं। बात इतनी भर नहीं है। गाली, गोली की बात करने वाले बेशक स्वयं विजयी हो जाए लेकिन उनके इस व्यवहार से देश और समाज विजयी नहीं हो सकता। 
यह दुर्भाग्य की बात है कि इस महायज्ञ में कोई दल लोकतंत्र की सुचिता को कायम रख पाने में सफल नहीं रहा है। भाषा संयम और धैर्य अपने समर्थकों को मूर्ख बनाने के लिए त्याग दिया गया है। राजनीति का इस स्तर तक गिरना किसी भी  ईमानदार राष्ट्रवादी और लोकतंत्र में आस्था रखने वाले के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि चुनाव एक प्रक्रिया है। यह अस्थायी दौर शीघ्र पूरा हो जाएगा परंतु कडवाहट लगातार लम्बे समय तक अपना प्रभाव दे सकती है। हमें समझना ही चाहिए कि  नेता आएगे, जाएगे, पार्टिया हारेंगी, जीतेंगी लेकिन देश को तो कहीं आना जाना नहीं है और न ही उसे हारने दिया जाना चाहिए। देश की जीत हर भारतीय की मुस्कान में है। यदि हमारे देश का एक भी नागरिक वर्तमान कडवाहट के दौर से दुःखी, परेशान होता हैं,  तो उसके अपराधी हमारे वे नेता हैं जो मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को पार करने में अपनी शान समझते हैं। 
 जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है। यह शब्द ही गलत है। वास्तव में सही शब्द ‘सर्व धर्म समभाव’ होना चाहिए था क्योंकि भारत जैसा देश व्वहार में धर्मनिरपेक्ष (धर्मरहित) हो ही नहीं सकता। इतिहास साक्षी है  पुरातन काल से ही भारत दुनिया को भाईचारे, शांति-सौहार्द और सहिष्णुता का संदेश देता आया है। पश्चिम में यह अवधारणा बहुत बाद में पनपी जबकि भारत में वैचारिक समृद्धता शिखर पर थी। 
भारत ने हर धार्मिक विश्वास को फलने-फूलने की आजादी दी इसीलिए तो कहा गया कि सर्व धर्म समभाव हमारे संस्कारों में रचा-बसा है। इसे सदियों से जीते और निबाहते आ रहे हैं। हमारे लिए हर धर्म आदरणीय हैं। आज भी केवल हिंदु ही उद्घोष करता है कि ‘ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु गॉड एक है, सब धर्म समान है’ जबकि दूसरे किसी भी धर्मालम्बी के होठ यह शब्द कहने से इंकार करते हैं। इसीलिए तो  गुरूदेव रविंद्र नाथ ठाकुर ने कहा था कि- ‘भारत में जो लोग सबसे पहले सभ्य हुए होंगे, वे धर्मनिरपेक्ष (सर्वधर्म समभावी) भी रहे होंगे। तभी तो वे एक-दूसरे के साथ इतने तालमेल से रह पाते थे।’ स्पष्ट है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता (सर्व धर्म समभाव) कहीं बाहर से नहीं आई बल्कि इसी देश  की मिट्टी में पनपी व विकसित हुई है। सम्राट अशोक हों या हर्षवर्धन, सभी ने दूसरे धर्मों के आदर की सीख भी दी।
 बेशक इस देश का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात हमने इसे धर्म राज्य नहीं बनाया। व्यक्तिगत रूप में में भारत को धार्मिक राज्य बनाने के पक्ष में नहीं हूँ पर जो लोग यह कहते हैं कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने से देश टूट जाएगा, वे गलत हैं। क्या वे नहीं जानते कि यूरोप और अरब के लगभग सभी देश ईसाई अथवा मुस्लिम राष्ट्र हैं। क्या इन देशों के विखंडित होने की संभावना किसी को दिखाई देती है? यदि नहीं तो भारत क्यों टूटता। वैसे यह बात भी स्पष्ट होनी चाहि कि हमारे देश के मूल संविधान में  धर्मनिरपेक्ष शब्द था ही नहीं। उसे आपातकाल के दौरान किए गए 42वें संविधान संसोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। जबकि ऐतिहासिक रूप से भारत सदियों से ‘सर्वधर्म समन्वय’ और वैचारिक एवं दार्शनिक स्वतन्त्रता  रही है। इसीलिए तो हमारे मुस्लिम भाई दुनिया के किसी भी मुस्लिम राष्ट्र के मुकाबले अधिक सुरक्षित हैं। हमारा संविधान शिया, सुन्नी, अहमदिया, कादियानी, खोजा, बोहरा, जैसे भेद नहीं करता। रूस के राष्ट्रपति पुतीन कह सकते हैं कि ‘जिन्हें इस देश के कानून से ज्यादा अपने धार्मिक कानून अजीज हों वे देश छोड़कर जा सकते हैं।’ पर भारत में आज तक किसी भी सरकार के मुखिया ने यह नहीं कहा। कटु सत्य तो यह है कि कहने को ही हम धर्मनिरपेक्ष हैं जबकि व्यवहार में हम अल्पसंख्यकवाद के बंदी है। इसीलिए तो हमारे कानून धर्मसापेक्ष हैं। आखिर जब कोई धार्मिक अंतर नहीं तो हर भारतीय के लिए एक समान कानून क्यों नहीं?
यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि लोकतंत्र में बहुमत की राय का सम्मान होता है परंतु भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा लोकतंत्र है जहाँ अल्पमत का शासन चलता है। उनके वोट बैंक का सौदा करने  कोई सौदागर सामने आकर सौदा करता है। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने वाले उसकी परिक्रमा करने लगते हैं। जबकि दूसरी ओर जाने माने मुस्लिम विद्वान प्रो. मुशीरूल हसन ने अपनी पुस्तक ‘इस्लाम इन सेकुलर इन्डिया’ में लिखते हैं, ‘भारतीय मुसलमानों में एक छोटे से वर्ग को छोडक़र बहुसंख्यक समाज किसी भी प्रकार से सेक्यूलर नहीं है‘(पृष्ठ-1) ‘उनमें से अधिकांश उलेमाओं का विश्वास है कि राज्य तो सेक्यूलर रहे परन्तु मुसलमानो को सेक्यूलरिज्म से बचाया जाय’ (पृष्ठ-12) भारतीय मुसलमान अपने जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में सेकुलर नहीं होना चाहते पर भारतीय राज्य सेक्यूलर देखना चाहतें हैं इसका उत्तर भी प्रो. हसन के यहां है - ‘भारत के मुस्लिम समुदायों ने भी सेक्यूलर राज्य का स्वागत किया है क्योंकि उन्हें डर है कि इसका विकल्प हिन्दू राज्य ही होगा।’ (पृष्ठ-8) 
स्पष्ट है कि यह देश यदि सर्वधर्मसमभाव के रास्ते पर चल रहा है तो इसका श्रेय इस देश के बहुसंख्यक समाज को जाता है जो वाणी, व्यवहार और दर्शन में किसी भी जीव के साथ ज्यादती को पाप मानता है। त दिवस जमीयत उलेमा-ए-हिंद के नेता मौलाना महमूद मदनी ने स्पष्ट कहा, ‘अगर आप मुझसे तिलक लगाने को कहेंगे तो मैं किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होऊंगा।’ यह किसे भूला होगा कि एक हिंदू नेता द्वारा टोपी पहनने से इंकार करने पर उसे आज तक साम्प्रदायिक कहा जाता है। इस विवाद पर एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ मुख्यमंत्री ने कहा था, ‘तिलक और टोपी दोनो चाहिए।’ क्या इसका यह अर्थ नहीं कि तिलक वाले तो टोपर पहन सकते हैं पर टोपी वाले तिलक हर्गिज नहीं लगाएगें। इतना ही क्यों बेशक पाकिस्तान ने भारत पर बार-बार हमले किये, हमारे देश को बर्बाद करने के लिए आतंकवाद को बढ़ावा दिया, सीमाओं पर अकारण तनाव बढ़ाया। वहाँ की पाठ्य पुस्तकों तक में हिंदुओं के विरूद्ध विषवमन किया जाता है  लेकिन फिर भी भारत के अधिसंख्यक लोग पाकिस्तान की खुशहाली की ही कामना करते हैं।
किसी भी धर्मांधारित व्यक्ति अथवा राज्य को  सेकुलर कहना न सिर्फ सेकुलररिज्म शब्द का गलत इस्तेमाल है बल्कि शायद अपने ापको धोखा देना है। धर्मनिरपेक्षता (सर्वधर्म समभाव) एकतरफा न होकर सभी के विवेक की परीक्षा है। राजनीति का छद्म लाभ के लिए उसकी शरण में जाना अथवा दिखावटी कवच कुंडल धारण करना देश के सामाजिक सौहार्द्ध को कमजोर करने का षड़यंत्र है। शायद ऐसे लोगों के लिए ही जाने-माने शायर निदा फाजली ने कहा है- 
अभी तो कोई हिंदू, कोई मुसलिम, कोई ईसाई है
सबने इंसान न होने की कसम खाई है। --- डा. विनोद बब्बर 09868211911
धर्मनिरपेक्षता का कवच कुंडल और वोटों की राजनीति धर्मनिरपेक्षता का कवच कुंडल और वोटों की राजनीति Reviewed by rashtra kinkar on 22:29 Rating: 5

No comments