प्रदूषण नहीं, स्नेह-सद्भावना का पर्व #polution Free Diwali
प्रदूषण नहीं, स्नेह-सद्भावना का पर्व
दिवाली से पूर्व ही घर-घर साफ-सफाई, सुधार, रंग-सफेदी के बाद रंगोली सजने लगती हैं क्योंकि दिवाली स्वच्छता का पर्व भी है। अपने घर आंगन की स्वच्छता, परिवेश की स्वच्छता, अपने मन-मस्तिष्क की स्वच्छता करने वाले समाज में पर्यावरण के प्रति जागृति न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। जब श्रीराम चौदह साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो उनके स्वागत में सजावट धूमधाम, दिये जलाने का उल्लेख तो मिलता है। ढ़ोल, नगाड़े भी बजे होंगे परंतु पटाखें की कहीं कोई चर्चा तक नहीं दिखती। स्पष्ट है कि खुशियां का आतिशबाजी सेें कोई संबंध हो सकता है। लेकिन खुशियों और प्रदूषण का कोई नाता हो ही नहीं सकता। निश्चित रूप से यह स्वयं को दूसरों से अधिक और प्रभावी आतिशबाजी करते हुए दीखने की होड़ का परिणाम है कि आतिशबाजी बनाने वालों ने चमक-दमक बढ़ाने के लिए उसके पर्यावरण पर पडने वाले प्रभावों की अनदेखी की होगी। पूरा विश्व हमें पुरातन और सनातन सभ्यता संस्कृति मानता है तो एक बात तो तय है कि ‘सबके मंगल की कामना’ करने वाला समाज खुशियां मनाते हुए प्रदूषण तो नहीं ही फैलाता होगा। संभवतयःउस समय पोटाश आदि रसायन भी उपलब्ध नहीं रहे होंगे। निश्चित रूप से बाद के क्रम में उनकी खोज और उत्पादन हुआ होगा, वह भी आतिशबाजी के लिए नहीं, बल्कि आत्मरक्षा के लिए हथियार बनाने के लिए ही हुआ होगा। इसका उपयोग युद्ध में होने लगा। कालान्तर में स्वयं को दूसरों से बढ़कर दिखाने की होड़ ने युद्ध जैसी तैयारी का रूप ले लिया और विनाश के लिए उपयोग में आनेे वाले गोला बारूद उत्सव का सधन बन गया।
अनियंत्रित अतिशबाजी का परिणाम होता हे कि मेरे जैसे व्यक्ति के लिए दिवाली से कुछ पूर्व से कम से कम एक सप्ताह बाद तक घर के अंदर कैद रहता है। बााहर की स्थिति की बात छोडिये प्रदूषण के कारण अंदर भी सांस लेना कठिन हो जाता है। ऐसे में पशु-पक्षियों की कौन कहें, बच्चों, बीमारों और बूढ़ों की स्थिति क्या होती होगी, समझना मुश्किल नहीं है। परेशान मन हर बार कहता है- ‘अगली बार किसी ऐसे स्थान पर जाऊंगा, जहां शोर और प्रदूषण न हो।’ लेकिन वर्षभर जहां भी गया, पाया कि हर स्थान पर हरियाली कम हो रही है और उसका स्थान पत्थर के जंगल ले रहे हैं। ऐसे में जाऊं तो जाऊं कहां? हो सकता है कुछ मित्र ऐसे स्थानों के नाम बताये जहां आपेक्षाकृत बेहतर वातावरण हो। लेकिन 132 करोड़ के देश में ऐसे स्थान हैं भी तो कितने? जो हैं वहां कितने लोग राहत पा सकते हैं? शेष को तो ध्वनि और वायु प्रदूषण की ज्वाला में जलना ही पड़ेगा। क्यों न दूर वन में जाने की बजाय हम अपने परिवेश में ही ऐसे वन बनाये जहां मन लगे। एक ओर अधिक से अधिक वृक्षारोपण और लगातार उनकी देखभाल। तो दूसरी ओर आतिशबाजी पर प्रतिबंध की बजाय उनके निर्माण की प्रक्रिया पर निगरानी रखी जाये। जिन रसायनों से प्रदूषण अधिक होता है उनके उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगें। कम से कम प्रदूषण की कीमत पर अधिक से अधिक संतुष्टि का उपाय खोजकर हम सभ्य, सुसंस्कृत कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। यदि हम अपने उत्सवों को सभ्यता, संस्कृति के पर्याय के साथ-साथ अच्छे स्वास्थ्य से जोड़ने में असफल रहते हैं तो स्वयं हमारा अपना मन ही हमारे अपने विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगाये। इससे पहले कि उत्साह, उल्लास और ऊर्जा प्रदान करने वाले उत्सवों के प्रति समाज की आस्था और उत्साह प्रभावित हो हमें प्रदूषणरहित दिवाली की ओर कदम बढ़ाने होंगे। दम्भ के प्रतीक गोला-बारूद नहीं, सांस्कृतिक सद्भावना और विनम्रता के प्रतीकों को पुष्ट करना होगा। होड़ नहीं, शांति का छोर चाहिए! प्रदूषण मुक्ति के लिए जोर चाहिए।
स्वच्छ, स्वस्थ, समृद्ध पर्यावरण के लिए जरूरी है दीपावली का प्रकाश हमारे मन-मस्तिष्क तक पहुंचे इसके लिए पर्यावरण मुक्ति जरूरी है। पटाखें से दूरी बनाते हुए शुद्ध संसाधनों से वैदिक यज्ञ करें। विदेशी दियों, लड़ियों, सजावट के सामान से दूरी बनाये और उपहारों की आकर्षण पैंकिंग में प्रयुक्त होने वाली प्रदूषण की वाहक सामग्री को ‘न’ कहे बिना यह कहना असंभव है कि प्रकाशपर्व ने हमारे हृदय पर दस्तक दी है। आओ इस बार स्वदेशी दिवाली का संकल्प लें। अपने देश के किसान-मजदूर के श्रम का सम्मान करना लक्ष्मी पूजन की प्रथम शर्त है। अपने कुम्भकार बंधुओं के पसीने से बने मिट्टी के दियों से न अपनेें घर के हर कोने को प्रकाशित करे बल्कि प्रियजनों को भी माटी के दिये भेंट करे। विदेशी चाकलेट नहीं, मां के हाथों बनी मिठाई से ही हम महालक्ष्मी को देश निकाला देने के अपराधबोध से बच सकते हैं। गरीब कुम्हार की मिटटी से बने दीये और मूर्तिया खरीदकर उसका रोजगार बढ़ाये। दिव्यांग बंधुओं द्वारा निर्मित डिज़ाइनर मोमबत्तियां, तथा सजावट का सामान आदि खरीदकर विघ्नविनाशक गणपति महाराज के स्नेह के पात्र बनें। अपने असक्षम बंधुओं के जीवन से अभावों का अंधकार दूर करने के लिए उन्हें भी अपनी खुशियों में शामिल करें। यथाशक्ति साधनहीनो की मदद का संकल्प लें। ‘मुट्ठी भर संकल्पवान लोग समय की धारा को बदल सकते हैं। तो हम पीछे क्यों रहें!’
उत्सव पुंज प्रकाशपर्व की अनंत शुभकामनायें स्वीकारें। -विनोद बब्बर 9868211911
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Reviewed by rashtra kinkar
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07:25
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