चिंतासन Chinta Asan



चिंतासन
हालात चिंताजनक हो या न हो, चिंतित होने वाले उबलते रहते हैं। चिंतित होना हमारा स्वभाव है। गाहे-बगाहे यह राष्ट्रीय कर्तव्य का रूप धारण कर चुका है। बाप चिंतित कि बेटे का पढ़ाई में मन नहीं लगाता। बेटा चिंतित कि उसका मन जहां लगता है, वहां ‘बात नहीं बन रही है। मास्साहब कक्षा में पढ़ाई से ज्यादा टयूशन के लिए चिंतित हैं। पढ़ने वाले भी कम चिंतित नहीं। उनकी चिंता पढ़ने से शुरु होकर पढ़ने के बाद क्या तक विस्तार पाती है। व्यापारी बाजार के मंदे से चिंतित है तो ग्राहक की चिंता बाजार की महंगाई है। किसी को नौकरी न मिलने से चिंता तो किसी को नौकरी बचाने की चिंता। कुछ को अपने बच्चों की शादी की चिंता तो अधिकांश को शादी के बाद होने वाली चिंताओं के ज्वालामुखी से बचने की चिंता। लोग बढ़ते अपराधों से चिंतित है तो पुलिस घटती वसूली से। घर के बच्चे से लेकर पार्क में बैठे बूढ़े तक सब चिंतित है। 
‘मौ-सम’ चरित्र से ज्यादा मौसम हमेशा से ही चिंता की विषय रहा है। जो पिछले साल कम बारिश से चिंतित थे, इसबार ज्यादा बारिश ने उनकी चिंता साधना को बढ़ाया ही है। समाज का बंटना चिंता का विषय होता है। ऐसे में कुछ लोग ‘एकमत हो’ का संदेश देते हैं। पर कुछ लोग समाज की एकता से भी चिंतित होकर ‘एक - मत हो’ का संदेश प्रसारित करने के लिए चिंतित करते हैं। परंतु इन ‘स्थितप्रज्ञों’ की चिंता सार्वजनिक चिंता न होकर ‘हिडन चिंता’ होती है। 
सबकी चिंता में सूख-सूख कर भारी भरकम होने वाले हमारे नेता चिंतापति और चिंतामणि है। हर पाले में चिंता ही चिंता बिखरी नजर आती है। विपक्ष की चिंता में उसकी अपनी चिंता प्रमुखता से शामिल होती है। मगर दावा यह कि ‘अगर वह पक्ष होता तो स्थिति इतनी चिंताजनक नहीं होती।’ ‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’- अकेले चिंता का कोई मतलब नहीं, अपनी इस चिंता को जन-जन तक पहुंचाने के लिए बेचारे विपक्ष को रैली, प्रदर्शन करने पड़ते है। रैली-प्रदर्शन में अच्छी उपस्थिति की चिंता एक अलग उपक्रम है। इस चिंता को अपने समर्थकों, छुटभैये नेताओं में बांटकर भी अनेक चिंताएं शेष रहती हैं। पोस्टर, बैनर, प्रचार से रैली के इंतजाम की चिंता मूल चिंता में कम नहीं होती। चिंता सुरसा की तरह विस्तार पाती रहती है परंतु चिंतित नेता मुस्कुराते हुए मीडिया को पोज देते हैं।
विपक्ष द्वारा चिंता प्रदर्शन का यह मतलब भी नहीं कि पक्ष चिंता रहित हो चुका है। पक्ष की सबसे बड़ी चिंता ‘पक्षी’ बने रहने के लिए है। पिछले वादे पूरे करने से ज्यादा चिंता नये वादों को गाढ़ी चाशनी मंें डुबोकर प्रस्तुत करने की होती है। सबसे बड़ी चिंता अपनी छवि बचाने से ज्यादा ‘उनकी’ छवि बिगाड़ने की होती है। पर दुर्भाग्य यह कि जनता समझने को तैयार ही नहीं कि नेताओं को कितनी चिंताये हैं। जनता की चिंता में टिकट न मिलने पर चिंतित नेता अपनी पार्टी तक को लाट मारने से भी गुरेज नहीं करते हैं पर चिंता पर आंच नहीं आने देतें।
राजनीति के बीहड़ में चिंता से चमकते चेहरे वाले ‘राजकुमार’ हों या दमकते ‘चौकीदार’ वे हमारी चिंता छोड़ने को तैयार ही नहीं। मुहावरे, लोकोक्तियां कहती रहें- ‘चिंता से चित्त घटे’ परंतु हमारी चिंता में चिंतित इन स्वयम्भू चिंतभक्तों का कद और पद लगातार बढ़ता रहता है। व्याकारण से भाषाशास्त्र तक चिंता और चिंता में एक बिंदी का अंतर होता होगा मगर इन चिंतामणियों के लिए चिंता ‘टानिक; है। चिंता उनकी संजीवनी है। इसीलिए कुछ अचिंतित लोगों को ‘चिंताजनक’ और ‘चिंता के जनक’ का अंतर दिखाई नहीं देता। मगर चिंताजनक बात यह कि सामान्यजन उनकी चिंता में शामिल होने की बजाय अपनी-अपनी चिंताओं के हस्तिापुर से बंधे नजर आते है।
अनुभव बताते है कि चिंता सरोकार से व्यापार तक अनेक रूप बदल चुकी है। चिंता मस्तिष्क का विषय जब थी तब थी, अब तो उसने भी ठिकाना बदल लिया है। जो जितना ज्यादा चिंतित, उसकी तोंद उतना ही विस्तृत। भाई-बहनो आप चिंतित न हो, अब कृषि प्रधान देश के लेबल को बहुत पीछे छोडकर अब हम चिंता प्रधान का दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। 
अगर आप अब भी चिंता को समचमुच ‘चिंताजनक’ मानते हो तो आपको किसी योग्य चिंतामणि के सान्निध्य में चिंतासन का अभ्यास करना चाहिए। 
- विनोद बब्बर (राष्ट्र किंकर)  संपर्क-  9868211911  1vinodbabbar@gmail.com

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