राजनैतिक अस्पृश्यता का औचित्य Vinod Babbar


राजनैतिक अस्पृश्यता का औचित्य लोकंतत्र एक विचार, एक दल, एक नेता के अतिरिक्त कुछ और सुनने से अस्वीकार करने का नाम नहीं है। जिस समाज में मत भिन्नता को स्वीकार ही न किया जाए उसे लोकतंत्र कैसे कहा जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि मत भिन्नता वस्तुतः वैचारिक विमर्श का आधार होती है और उसके लिए एक मंच पर मिल बैठना और मत विवेचन करना एक उत्तम साधन है। आज से नहीं, वैदिक काल में प्रचलित ‘शास्त्रार्थ’ प्रथा विचार विमर्श , अथवा अपने-अपने विचार को प्रस्तुत करने कालोकतंत्र में मत भिन्नता वस्तुतः वैचारिक विमर्श का आधार होता है और उसके लिए एक मंच पर मिल बैठना और मत विवेचन करना एक उत्तम साधन. वैदिक काल में प्रचलित ‘शास्त्रार्थ’ प्रथा की व्यवस्था हमारे देश में रही है। इतिहास साक्षी है कि राजा जनक के शासन काल में ‘गार्गी और याज्ञवल्क्य’ दो भिन्न मत विद्वानों के बीच किसी मह्त्वपूर्ण विषय पर आयोजित परस्पर बहस से किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की चर्चा मिलती है। वैचारिक आदान-प्रदान किसी भी सभ्य समाज की बौद्धिक परिपक्वता का परिचायक होता है। ...और जहाँ दूसरे मत को सुने बिना ही अस्वीकार करने की परंपरा हो उस व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र का सम्यक मूल्यांकन संभव नहीं हो सकता। ऐसे बंद समाज में किसी भी समस्या के समाधान की गुंजाइश आपेक्षाकृत कम ही होती है। वहाँ सामाजिक एकजुटता के स्थान पर विभाजन एवं विखंडन को बल मिलता है। दूसरे पक्ष की भावनाओं अथवा पक्ष को अपने साधनों के बल पर दबाने का प्रयास करने वालो के प्रति जनता की सहानुभूति और समर्थन लम्बे समय तक कायम नहीं रखा जा सकता क्योंकि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। वह मूर्खों का नहीं, परिपक्वों की सामाजिक व्यवस्था मानी जाती है। उसमें किसी प्रकार की अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं होता क्योंकि उस समाज को परिपक्व माना ही नहीं जाता जहाँ अस्पृश्यता विक्ष्मान हो। ऐसा व्यवहार मानवता के प्रति अपराध माना जाता है लेकिन समाज का वह वर्ग जिसपर अस्पृश्यता का कोढ़ समाप्त करने की जिम्मेवारी हो। यदि वह भी इस सामाजिक अपराध को अपने दैनिक व्यवहार अथवा राजनैतिक पैंतरेबाजी का हिस्सा बना ले तो किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन कल्पनालोक में विचरण के समान है। ताजा उदाहरणों के केन्द्र में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी है। मोदी से राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता हो सकती है। उनसे असहमति हो सकती है। उनपर साम्प्रदायिकता के इल्जाम लगाये जा सकते हैं लेकिन उन्हें अस्पृश्य घोषित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं हो सकता। यह लोकतंत्र की किसी भी परिभाषा को पूरा नहीं करता कि जो भी मोदी से हाथ मिलाये या बात करे उसे अपराधी घोषित कर उसे दंडित किया जाए। यदि यह मापदंड लागू ही रखने है तो क्या सबसे पहले गुजरात की वह जनता ही दोषी नहीं है जिसने मोदी को अपना नेता चुना हैद्य वैसे भी उन पर आज तक न तो कोई आरोप सिद्ध हुआ है और न ही भविष्य में ऐसा होने की संभावना दिखाई देती है। उनके नेतृत्व में गुजरात के प्रगति पथ पर लगातार अग्रसर होने अथवा व्यक्तिगत रूप से मोदी के विरूद्ध भ्रष्टाचार के आरोप न होने की बात उनके विरोधी भी झुठला नहीं कह सकते। उन्हें गुजरात की जनता ने लगातार तीन बार भारी बहुमत प्रदान किया है तो उसका जरूर कोई कारण होना चाहिए। ऐसे व्यक्तित्व से कुछ लोगों को ईर्ष्या होना स्वाभाविक है लेकिन उनसे मिलना, बात करना अथवा उनके प्रति सामान्य शिष्टाचार निभाने वाले के साथ अपराधी जैसा व्यवहार करना राजनैतिक अस्पृश्यता नहीं तो और क्या है? लोकतंत्रीय परिवेश में ऐसी प्रवृत्ति का सिर उठाना सुखद नहीं कहा जा सकता। महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन के गुजरात का अम्बेस्डर बनने पर उनकी जबरदस्त आलोचना हुई। उसके बाद उन प्रवासियों भारतीयों को कोपभाजन बनना पड़ा जो गुजरात के विकास से प्रभावित हुए। माकपा के सांसद अब्दुल कुट्टी द्वारा गुजराम माडल् से नसीहत लेने की बात उनको पार्टी से निकाल बाहर करने का कारण बनती है तो समझा जा सकता है सर्वहारा की बात करने वाले दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में कितना लोकतंत्र है। यह सूची गुलाम वस्तानवी द्वारा गुजरात के विकास में सभी वर्गो के विकास की बात कहने पर उठे कोहराम के साथ समाप्त नहीं हुई और संभवतयः न ही शाहिद सिद्दिकी, बाबा रामदेव, विजय दर्डा के साथ समाप्त होगी। आश्चर्य है कि समाजवादी पार्टी जोकि स्वयं को साम्प्रदायिकता से लड़ने वाली सबसे बड़ी शक्ति बताती है, उसे अपने पूर्व सांसद शाहिद सिद्दिकी द्वारा मोदी का इन्टरव्यू लेना इतना गलत लगा कि उन्हें पार्टी से निकाल बाहर किया। सिद्दिकी उर्दू पत्रिका ‘नई दुनिया’ के संपादक हैं। उन्होंने मोदी से अनेक कड़े प्रश्न पूछे जिनके जवाब में मोदी का यह कहना, ‘यदि मैं दोषी हूँ तो मुझे फांसी दी जाए।’ जनता के दिलों में घर कर गया। शायद यह इन्टरव्यू ‘गुजरात! गुजरात!!’ का शोर मचाकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने वालो को खितरे की घंटी प्रतीत हुआ होा इसीलिए उन्होंने मोदी के स्थान पर उसे ही दंडित कर अपने अहम् को संतुष्ट करना चाहा जो वास्तव में उनका अपना था। होना तो यह चाहिए था कि पत्रकारिता के उच्च मापदंड स्थापित करने वाले संपादक की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने बिना कोई भेदभाव किये मोदी से हर तरह के प्रश्न पूछने का साहस किया। दूसरा मामला महाराष्ट्रसे राज्यसभा के कांग्रेसी सांसद विजय दर्डा का है। अहमदाबाद के एक समारोह में मोदी के आने पर हुई हलचल पर उन्होंने कहा, ‘मैं जानता हूँ कि हलचल क्यों हो रही है। आखिर गुजरात का शेर आया है।’ मोदी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा भी, ‘संभव है विजय दर्डा को भी निलम्बन पत्र मिल जाए।’ हुआ भी वहीं कांग्रेस ने दर्डा की कसकर खबर ली। जबकि दर्डा बार-बार कह रहे हैं कि उन्होंने मेहमान होने के नाते मेजबान के प्रति सामान्य शिष्टाचार निभाया है। आखिर क्या हुआ इस देश को जहाँ आचार्य कृपलानी और सुचेता कृपलानी अलग-अलग पार्टियों में होते हुए भी सफल पति-पन्नी बने रहे। घोर विरोध होते हुए भी अटल जी ने इन्दिरा जी को दुर्गा तक कहा। एक बार जब अटल जी अस्वस्थ थे तो प्रधानमंत्री राजीव गांधी उन्हें विदेश जाकर इलाज करवाने के लिए सहमत करवाने स्वयं उनके घर तक गए थे। नरसिंहा राव के प्रधानमंत्री काल में संयुक्त राष्ट्र सभा की बैठक में अटल जी को प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाकर भेजा गया था। ऐसे हजारों उदाहरण हैं जो भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाते हैं। जिन्हें मोदी से शिकायत हैं वे लगातार सबसे बड़ी अदालत में जा रहे हैं। जिन्हें मोदी पर विजय प्राप्त करने अथवा उन्हें हराने का अपना संकल्प पूरा करना हो वे जनता की अदालत में जाने की बजाय विचार भिन्नता पर प्रतिबंध लगाना चाहते हैं तो वे समझ लें कि यह मार्ग गलत है। इस मार्ग पर चलते हुए वे लोग अपने ही समर्थकों को खो रहे हैं और न चाहते हुए भी मोदी को ही मजबूत कर रहे हैं। यह सर्वभौमिक सिद्धांत है कि कोई व्यक्ति या संगठन यदि सिर्फ अपनी ही कहना सुनना चाहता है, अथवा अपने से भिन्न विचारधारा के पक्षधर व्यक्तियों और संगठनों के नेताओं से सम्पर्क रखना तो दूर उनके साथ बैठने वालों तक को बहिष्कृत कर देता है यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ऐसा वह किसी भयवश करता है अथवा अपनी विचारदृष्टि को सर्वश्रेष्ठ मानने के दम्भवश करता है? ऐसे में लगता है कि वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तंग सोच की जंजीरों में बांध कर कुछ लोग एक विशिष्ट किस्म की अस्पृश्यता को बढ़ावा दे रहे हैं जो किसी के लिए भी हितकर नहीं है. इसे रोके जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह लोकतंत्र के लिए घातक है।
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